काग़ज़ पर कुछ भी लिख आया करता था - KUNAL

काग़ज़ पर कुछ भी लिख आया करता था
नज़्म ग़ज़ल सा कुछ बन जाया करता था

उल्टे सीधे शब्द अड़ाया करता था
फिर मैं उस में बहर फँसाया करता था

रिक्त स्थान ग़ज़ल के भरने को फिर मैं
पत्थर रोड़े ईंट लगाया करता था

बिंत-ए-ग़ज़ल तब जान छिड़कती थी मुझ पर
मैं उस के प्रतिबंध हटाया करता था

भगा उसे मीनार-ए-रिवायत से फिर मैं
नए नए ज़ाविए दिखाया करता था

हुस्न अदब नाज़ुकी भुला कर उस से मैं
नौ से पाँच के काम कराया करता था

- KUNAL
0 Likes

More by KUNAL

As you were reading Shayari by KUNAL

Similar Writers

our suggestion based on KUNAL

Similar Moods

As you were reading undefined Shayari