काग़ज़ पर कुछ भी लिख आया करता था
नज़्म ग़ज़ल सा कुछ बन जाया करता था
उल्टे सीधे शब्द अड़ाया करता था
फिर मैं उस में बहर फँसाया करता था
रिक्त स्थान ग़ज़ल के भरने को फिर मैं
पत्थर रोड़े ईंट लगाया करता था
बिंत-ए-ग़ज़ल तब जान छिड़कती थी मुझ पर
मैं उस के प्रतिबंध हटाया करता था
भगा उसे मीनार-ए-रिवायत से फिर मैं
नए नए ज़ाविए दिखाया करता था
हुस्न अदब नाज़ुकी भुला कर उस से मैं
नौ से पाँच के काम कराया करता था
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