“अधूरी नज़्म”
हाँ वो तो शायर है , और सखी मैं
मैं हूँ नज़्म उसी की एक अधूरी
जो कई बरसों पहले लिखते-लिखते
छूट गई उन हाथों से ही अधूरी
जिन पत्थर से हाथों को नरमी से
कुछ और नयी नज़्मों को बुनना था
उलझन के धागों को फिर सुलझा के
और नये लफ़्ज़ न सिर्फ पिरोने थे
उनको पहले से ज़्यादा तराशना था
उनको और भी ज़्यादा निखारना था
लेकिन मैं जो उसकी पहली नज़्म हूँ
क्यों आज अधूरेपन से बोझिल हूँ
मुझसे नज़रे मिलते ही उसने तो
बैचेनी से भी पन्ने पलटे हैं
पर इक हाथ रहा उसका मुझ पर
जो बोझ नयी नज़्मों का संभाले था
वो ठहरता साथ एक लम्हा मेरे
तो शायद मेरा हो कर रह जाता
यूँ ही अक्सर पहली मोहब्बत सी
पहली नज़्म अधूरी रह जाती है
क्योंकि कभी वो ख़ुद मुझको कह न सका
उसने मुझको सिर्फ लिखा है अब तक
वो कह दे तो मैं पूरी हो जाऊँ
उसकी आवाज़ से जिंदा हो जाऊँ
उसे पता है मैं पूरी होते ही
ख़ुद से उसको पूरा कर दूँगी
और अधूरी हो जाऊँगी फिर से
वो भी अधूरा रह जाएगा फिर से
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