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हिज्राँ की कोफ़्त खींचे बे-दम से हो चले हैं  - Meer Taqi Meer

हिज्राँ की कोफ़्त खींचे बे-दम से हो चले हैं
सर मार मार या'नी अब हम भी सो चले हैं

जवीं रहेंगी जारी गुलशन में एक मुद्दत
साए में हर शजर के हम ज़ोर रो चले हैं

लबरेज़ अश्क आँखें हर बात में रहा कीं
रो रो के काम अपने सब हम डुबो चले हैं

पछताइए न क्यूँकर जी इस तरह से दे कर
ये गौहर-गिरामी हम मुफ़्त खो चले हैं

क़त्अ तरीक़ मुश्किल है इश्क़ का निहायत
वे 'मीर' जानते हैं इस राह जो चले हैं

- Meer Taqi Meer

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