0

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई  - Mirza Ghalib

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई

शक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तकलीफ़-ए-पर्दा-दारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिए बस अब कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी कू-ए-यार में
बारे अब ऐ हवा हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल-फ़रेबी-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई

फ़र्दा ओ दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने असदुल्लाह ख़ाँ तुम्हें
वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई

- Mirza Ghalib

Miscellaneous Shayari

Our suggestion based on your choice

More by Mirza Ghalib

As you were reading Shayari by Mirza Ghalib

Similar Writers

our suggestion based on Mirza Ghalib

Similar Moods

As you were reading Miscellaneous Shayari