सोगवारों से भरी बज़्म सजा रख्खी हैं
दिल की दरगाह में कल शाम सिमा रख्खी हैं
जंग में दिल का कोई काम नहीं होता पर
उसने गर्दन मिरे कदमों में झुका रख्खी हैं
देख कर चाँद को आयात पढ़ी लोगो ने
मैंने नज़रे तो तिरी छत पे टिका रख्खी हैं
कौन आगाज़ करे गुफ्तगू का मुश्किल हैं
बीच में दोनों के इक प्लेट अना रख्खी हैं
मोत इक वस्ल का इम्कान हैं मेरे नज़दीक
ये फना हैं तो , फना में ही बका रख्खी हैं
तू न घबरा के क़ज़ा छू नहीं सकती तुझको
उसके होठों पे 'हसन' तेरी शिफा रख्खी हैं
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