दुनिया की नहीं चाह अकेला ही बहुत है

  - Sagar Sahab Badayuni

दुनिया की नहीं चाह अकेला ही बहुत है
उस शख़्स का मेरे लिए साया ही बहुत है

मैं ये तो नहीं जानती तुम क्या हो मिरे पर
तुम कह रहे हो अपना ये कहना ही बहुत है

अच्छा नहीं हर बार का मिलना हो बदन से
तुम देख रहे हो मुझे इतना ही बहुत है

तो क्या हुआ तुम प्यार मुझे कर नहीं सकते
ग़ुस्से में तुम्हारा ये झगड़ना ही बहुत है

ये ख़्वाब मिरे ख़्वाब ही रह जाएँगे क्या फिर
क्या देख रही हूँ मैं ये इतना ही बहुत है

ता-उम्र तड़पना मैं मुक़द्दर ही समझ लूँ
क्या मान लूँ जितना मिले उतना ही बहुत है

ये तिश्नगी भी आपको जिस्मों की मुबारक
मेरे लिए तो ख़ैर ये सहरा ही बहुत है

तुम चाहती हो छोड़ के जाना चली जाओ
मुझको ये उदासी ये अँधेरा ही बहुत है

आसूदगी-ए-कैफ़-तमन्ना तो नहीं अब
आज़ारगी-ए-तर्क-एक--तमन्ना ही बहुत है

दरिया की तलब जिसको वो बैठा ही रहे फिर
मुझको पता है मरने को क़तरा ही बहुत है

  - Sagar Sahab Badayuni

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