दुनिया की नहीं चाह अकेला ही बहुत है
उस शख़्स का मेरे लिए साया ही बहुत है
मैं ये तो नहीं जानती तुम क्या हो मिरे पर
तुम कह रहे हो अपना ये कहना ही बहुत है
अच्छा नहीं हर बार का मिलना हो बदन से
तुम देख रहे हो मुझे इतना ही बहुत है
तो क्या हुआ तुम प्यार मुझे कर नहीं सकते
ग़ुस्से में तुम्हारा ये झगड़ना ही बहुत है
ये ख़्वाब मिरे ख़्वाब ही रह जाएँगे क्या फिर
क्या देख रही हूँ मैं ये इतना ही बहुत है
ता-उम्र तड़पना मैं मुक़द्दर ही समझ लूँ
क्या मान लूँ जितना मिले उतना ही बहुत है
ये तिश्नगी भी आपको जिस्मों की मुबारक
मेरे लिए तो ख़ैर ये सहरा ही बहुत है
तुम चाहती हो छोड़ के जाना चली जाओ
मुझको ये उदासी ये अँधेरा ही बहुत है
आसूदगी-ए-कैफ़-तमन्ना तो नहीं अब
आज़ारगी-ए-तर्क-एक--तमन्ना ही बहुत है
दरिया की तलब जिसको वो बैठा ही रहे फिर
मुझको पता है मरने को क़तरा ही बहुत है
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