अब रंग-ओ-बू, बाद-ए-सबा, रंग-ए-हिना कुछ भी नहीं
बस दिल ही टूटा है मियाँ बाक़ी हुआ कुछ भी नहीं
तन्हा ही था तू इश्क़ की राहों में शायद इसलिए
सारी कहानी सुनके भी उसने सुना कुछ भी नहीं
थक हार कर दुःख से मेरे हाए तबीबा कह पड़ी
ग़म ही मुदावा है मरीजाँ और दवा कुछ भी नहीं
आबाद रहने को जहांँ में इक नसीहत याद रख
है वक़्त से पहले किसी को क्या मिला कुछ भी नहीं
इक रोज़ उसकी ख़ामुशी से खुल गया सारा फ़ुसूँ
कहता रहा दिल साहिबा तूने कहा कुछ भी नहीं
क्या चाँद-सूरज, क्या सितारे, आसमाँ क्या, क्या ज़मीं
सब में निहाँ तेरा निशाँ इसके सिवा कुछ भी नहीं
सारी किताबें, सब रिसाले, सारा मंतिक़-फ़ल्सफ़ा
पढ़ कर भी तेरे इश्क़ से आगे बना कुछ भी नहीं
कुछ फ़िक़्र कर उक़्बा की भी जब तक है सालिम ज़िंदगी
ईज़ादही दुनिया की फिर ये मस'अला कुछ भी नहीं
इक दिन जो पूछा दिल से मैंने इस जहांँ में क्या मिला
बे-साख़्ता दिल रो के यूंँ कहने लगा, कुछ भी नहीं
Read Full