अपना ही चोट दे के कोई जब चला गया
इल्ज़ाम मेरे ज़ख़्म का मुझ पर ही आ गया
फिर दूसरी किताब में मेरा न दिल लगा
या'नी तुम्हारे बाद भी तुम को पढ़ा गया
जीने की मेरे वजह कोई भी नहीं रही
तू आख़िरी उमीद था तू भी चला गया
तंग आ के ज़िंदगी से मैं मरने पे था ब-ज़िद
इतने में एक हाथ मेरे सर पे आ गया
इक उम्र तेरी जुस्तुजू में मुब्तला रहा
इक उम्र तेरी याद में तन्हा रहा गया
कुछ देर मुझ को ग़ौर से सब देखते रहे
कुछ देर बा'द ज़ोर से मुझ को सुना गया
दो चार दिन ही आँख में आँसू मैं रख सका
दो चार दिन में हादसा दिल में समा गया
जो दर्द कह सका न किसी ग़म-गुसार से
सद-शुक्र है कि वो मेरी ग़ज़लों में आ गया
सोहिल वो एक शख़्स जो सुनता था हाल-ए-दिल
नासाज़ हम को जान के छुटकारा पा गया
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