ग़ालिब की पढ़ दूँ इक ग़ज़ल या शेर कह दूँ मीर का
महफ़िल तिरी आरास्ता हो दिल तो बहले हीर का
मंज़िल से इतना पास है तू अब ज़रा मोहतात रह
रहज़न पहन बैठा हो याँ चोग़ा किसी रहगीर का
छिप जाए ख़ामी सारी अपनी वास्ते इसके लिए
करता रहा वो तो गिला बस कातिब-ए-तक़दीर का
मैं चीख़ कर कहता हूँ सच को बस इसी उम्मीद से
शायद असर हो जाए इन पर कुछ मिरी तक़रीर का
ज़िंदान में रह कर ये समझा रक़्स करने के लिए
कितना अहम है टूटना भी पाँव की ज़ंजीर का
मुझ इल्म के शैदाई को इक हादिसे ने दी सबक़
ख़ामोश रहते हैं क़लम जब शोर हो शमशीर का
'वासिफ़' ज़माना तब ही समझा दीद के क़ाबिल उसे
जब ख़ूँ मुसव्विर का बना है रंग उस तस्वीर का
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