न बदलो बस्ती अभी तुम्हारा ज़माना रस्ता बदल रहा है

  - Wasif Iqbal

न बदलो बस्ती अभी तुम्हारा ज़माना रस्ता बदल रहा है
ठिकाना ढूँढोगी तुम कहाँ पर नगर तो सारा ही जल रहा है

ये सर्द रातों की फ़र्श जैसे सफ़ेद चादर से ढक गई हो
हसीन रुख़सार उफ़ तुम्हारे कि गोया पर्वत पिघल रहा है

बची हो अब तक जो बद-नज़र से ख़ुदा के हिफ़्ज़-ओ-अमान में हो
तुम्हारा सदक़ा ख़ुदा की रह में किसी के घर से निकल रहा है

जिसे मयस्सर नहीं हुआ है वो ख़ूब जाने है क्या मुहब्बत
तुझे है हासिल जो ये कली तो क़दम तले क्यों कुचल रहा है

बुलंद हो हौसला अगरचे तो ग़ैर मुमकिन नहीं है कुछ भी
ये कश्ती तूफ़ाँ में चल रही है चराग़ आँधी में जल रहा है

समेट लेगा ख़ुदा ये दुनिया तुम्हारे जाने के बाद फ़ौरन
तुम्हारी साँसें चलेंगी तब तक ये दौर-ए-दुनिया भी चल रहा है

वो सुर्ख़ लब से यूँ मुस्कुराना उदास आँखों का रूठ जाना
फ़क़त ये चेहरा नहीं है 'वासिफ़' तेरे लिए तो ग़ज़ल रहा है

  - Wasif Iqbal

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