आज क़लम को उर्दू से तर कर लूँगा
नज़्म को फिर काग़ज़ के दिल में भर लूँगा
गाँव में पुरखों का वो बड़ा घर जो बिक जाए
शहर में फिर जा के छोटा सा घर लूँगा
दिल पर तारी है उस बच्चे का रोना
अब अपने दामन में उस को धर लूँगा
अपने बदन की क़ैद में कब से हूँ मैं बंद
बह जाऊँगा ख़ुद को समंदर कर लूँगा
मेरे हम-दम बेबाकी से कर ले बहस
हो इल्ज़ाम कोई मैं अपने सर लूँगा
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