जंगल दरिया पर्वत सागर सहरा अच्छा लगता है
साथ में जब वो होती है हर रस्ता अच्छा लगता है
प्यार मोहब्बत की बातें तो सबकी अच्छी लगती हैं
वो लड़ती भी है तो उसका लड़ना अच्छा लगता है
उसकी हाथ के मरहम से ये धीरे-धीरे भरते है
ज़ख़्मों को भी शायद उसका छूना अच्छा लगता है
बिंदिया चूड़ी काजल गजरा उसके बिन सब फीके हैं
हर ज़ेवर मेकअप को उस पर सजना अच्छा लगता है
शेर ग़ज़ल या नज़्में हो मैं इसीलिए तो लिखता हूँ
यार मिरे बस उसको ये सब पढ़ना अच्छा लगता है
और किसी से इश्क़ हो दिल को इसीलिए मंज़ूर नहीं
आँगन में केवल तुलसी का पौधा अच्छा लगता है
अपनी अंतिम इच्छा में भी उसका दीद ही चाहूँ मैं
क्या बतलाऊँ वो इक चेहरा कितना अच्छा लगता है
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