इसी उलझन में उम्र सारी बसर की
ये छाया सूरज की है या शजर की
एक दिन मैं अपने घर महमान हुआ
ताक पर रख दी आवारगी ज़िन्दगी भर की
मैंने हादसों से अपनी झोली भर ली
जैसे कमाई हो किसी लंबे सफर की
कोई इतना मुतमईन कैसे हो सकता है
जाम भी ना लिया ज़िन्दगी भी बसर की
दिन तो कयामत था गुज़ारा नहीं गया
रात तो ज़िन्दगी थी सो बसर की
हां फसाना तो मैं भूल गया लेकिन
कुछ गलियां याद है तेरे शहर की
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