Alam Khursheed

Alam Khursheed

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Alam Khursheed shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Alam Khursheed's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
ऐरों ग़ैरों का एहसान उठाना पड़ता है

टेढ़े-मेढ़े रस्तों पर भी ख़्वाबों का पश्तारा
तेरी ख़ातिर मेरी जान उठाना पड़ता है

कब सुनता है नाला कोई शोर-शराबे में
मजबूरी में भी तूफ़ान उठाना पड़ता है

कैसी हवाएँ चलने लगी हैं मेरे बाग़ों में
फूलों को भी अब सामान उठाना पड़ता है

गुल-दस्ते की ख़्वाहिश रखने वालों को अक्सर
कोई ख़ार भरा गुल-दान उठाना पड़ता है

याँ कोई तफ़रीक़ नहीं है शाह गदा सब को
अपना बोझ दिल-ए-नादान उठाना पड़ता है

यूँ मायूस नहीं होते हैं कोई न कोई ग़म
अच्छे अच्छों को हर आन उठाना पड़ता है

मक्कारों की इस दुनिया में कभी कभी 'आलम'
अच्छे लोगों को बोहतान उठाना पड़ता है
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Alam Khursheed
कोई मौसम न कभी कर सका शादाब हमें
शहर में जीने के आए नहीं आदाब हमें

बहते दरिया में कोई अक्स ठहरता ही नहीं
याद आता है बहुत गाँव का तालाब हमें

इस तरह प्यास बुझाई है कहाँ दरिया ने
एक क़तरे ने किया जिस तरह सैराब हमें

झिलमिली रौशनी हर-सम्त नज़र आती है
खींचती है कोई क़िंदील तह-ए-आब हमें

क्या पता कौन से जन्मों का है रिश्ता अपना
ढूँड ही लेते हैं हर बहर में गिर्दाब हमें

दिन उलट देता है हर ख़्वाब की ता'बीर मगर
रात दिखलाती है फिर कोई नया ख़्वाब हमें

बे-अमाँ हम जो हुए हैं तो हमें याद आया
रोज़ देते थे सदा मिम्बर-ओ-मेहराब हमें

काश मा'लूम ये पहले हमें होता 'आलम'
देखना चाहता था वो भी ज़फ़र-याब हमें
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Alam Khursheed
बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी तिश्ना ख़्वाब में

जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में

इस ज़मीं पर तू नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में

रोज़ आता है मिरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में

मुद्दतों से दिल है उस का मुंतज़िर
कोई वा'दा कर गया था ख़्वाब में

क्या यक़ीं आ जाएगा उस शख़्स को
उस की बाबत जो भी देखा ख़्वाब में

एक बस्ती है जहाँ ख़ुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या क्या ख़्वाब में

अस्ल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यूँ नज़र आए तमाशा ख़्वाब में

खोल कर आँखें पशेमाँ हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में

क्या हुआ है मुझ को 'आलम' इन दिनों
मैं ग़ज़ल कहता नहीं था ख़्वाब में
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Alam Khursheed
नए सिरे से कोई सफ़र आग़ाज़ नहीं करता
जाने क्यूँ अब दिल मेरा परवाज़ नहीं करता

कितनी बुरी आदत है मैं ख़ामोश ही रहता हूँ
जब तक मुझ से कोई सुख़न आग़ाज़ नहीं करता

कैसे ज़िंदा रहता हूँ मैं ज़हर को पी कर अब
दीवार-ओ-दर को भी तो हमराज़ नहीं करता

ताज़ा हवा के झोंके अक्सर आते रहते हैं
आख़िर क्यूँ मैं अपने दरीचे बाज़ नहीं करता

जाने कैसा राग बजाना सीख लिया दिल ने
मेरी संगत अब कोई दम-साज़ नहीं करता

अहल-ए-हुनर की आँखों में क्यूँ चुभता रहता हूँ
मैं तो अपनी बे-हुनरी पर नाज़ नहीं करता

मुझ में कुछ होगा तो दुनिया ख़ुद झुक जाएगी
मैं नेज़े पर सर अपना अफ़राज़ नहीं करता

वक़्त के सारे चक्कर हैं ये 'आलम'-जी वर्ना
यहाँ किसी को कोई नज़र-अंदाज़ नहीं करता
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