हिसार-ए-आशिक़ी में वज्द की हालत में रहता हूँ
बहारें मुझ में ख़ेमा-ज़न हैं मैं राहत में रहता हूँ
कभी मसरूफ़ था मैं आज-कल फ़ुर्सत में रहता हूँ
अकेला हूँ सो अपनी ज़ात की वुसअ'त में रहता हूँ
जो तू ने आग बख़्शी है उसी में जल रहा हूँ मैं
है तेरे क़ुर्ब की चाहत इसी चाहत में रहता हूँ
न कुछ पाने की हसरत है न कुछ खोने का ख़तरा है
बहुत बे-ख़ौफ़ हो कर मैं तिरी सोहबत में रहता हूँ
निकल आया हूँ मैं 'आलोक' दुनिया के झमेलों से
नई बेदारियाँ हैं फ़िक्र की जन्नत में रहता हूँ
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