'फिर एक रात यूॅं ही गुज़र जाने को है'
फिर एक रात यूॅं ही गुज़र जाने को है
ख़्वाब सारे टूट कर कहीं सिफ़र जाने को हैं
घोंसला वहम-ओ-गुमान का फिर से उजड़ जाने को है
ज़ख़्म वो पुराने फिर निखर आने को हैं
सारा जहाँ मानो गहरी नींद में सो गया है
ये मन मेरा फिर उन हसीं यादों में खो गया है
क़लम जैसे फिर कोई नज़्म लिखने की ज़िद पे अड़ी है
शरीफ़ दिल की ये आदत आज भी बहुत बुरी है
आँखों से नींद फिर गुम सी गई है
सीने में धड़कन जैसे थम सी गई है
ये चंचल हवाऍं ये गुम सुम घटाऍं
मुझे ख़ुद से कहीं दूर ले जा रही हैं
वो सुनसान सड़कें वो वीरान गलियाँ
मुझे फिर से अपने पास बुला रही हैं
हरेक परवाने को जैसे बस शमा की तलाश है
लहरों के मन में भी कोई अधूरी सी प्यास है
सितारे अब चमक चमक कर थक से गए हैं
पत्ते भी पूरी तरह शबनम से लिपट गए हैं
वक़्त जैसे रेत की तरह फिसल रहा है
चाँद तेजी से फ़लक की ओर बढ़ रहा है
ये सुकून-ए-अँधेरा फिर से उतर जाने को है
ये ख़ूबसूरत नज़ारे फिर से बिखर जाने को हैं
फिर एक रात यूॅं ही गुज़र जाने को है
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