ज़ंजीर में हैं दैर-ओ-हरम कौन-ओ-मकाँ भी
है इश्क़ हमें उन से नहीं जिन का गुमाँ भी
जो जिस्म के ज़र्रों में ख़ुदा ढूँड रही है
यूसुफ़ की ज़ुलेख़ा में है वो रूह-ए-तपाँ भी
इस मोहर-ए-ख़मोशी में निहाँ रूह-ए-तकल्लुम
इस सोए हुए शहर की है अपनी ज़बाँ भी
हर लहर के सीने से लिपटता है मिरा दिल
मंजधार के इस पार हो साहिल का निशाँ भी
क्यों वक़्त की लहरें मुझे ले जाएँ किसी ओर
दाइम दिल-ए-दरिया हूँ मैं मौजों में रवाँ भी
हम ज़ीस्त की सरहद पे मिले मौत से लेकिन
है दश्त-ए-तलब भी वही और मंज़िल-ए-जाँ भी
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