Kabeer Athar

Kabeer Athar

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Kabeer Athar shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Kabeer Athar's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
जो आम सा इक सवाल पूछा तो क्या कहेंगे
किसी ने हम से भी हाल पूछा तो क्या कहेंगे

जो सर के बल ख़ाक में गड़े हैं किसी ने उन से
बुलंदियों का मआल पूछा तो क्या कहेंगे

ज़माने-भर को तो हम ने ख़ामोश कर दिया है
जो दिल ने भी इक सवाल पूछा तो क्या कहेंगे

जिन्हें हमारे लहू की लत है किसी ने उन से
ख़ुमार-रिज़्क-ए-हलाल पूछा तो क्या कहेंगे

जिसे ग़ज़ल में बरत के हम दाद पा चुके हैं
किसी ने उस दुख का हाल पूछा तो क्या कहेंगे

अगर हम उस की ख़ुशी में ख़ुश हैं तो दोस्तों ने
जवाज़-ए-हिज़्न-ओ-मलाल पूछा तो क्या कहेंगे

ये हम जो औरों के दुख का ठेका लिए हुए हैं
किसी ने इस का मआल पूछा तो क्या कहेंगे

जो अपनी जानें बचा के ख़ुश हैं 'कबीर' उन से
किसी ने बस्ती का हाल पूछा तो क्या कहेंगे
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Kabeer Athar
कभी फ़िराक़ कभी लज़्ज़त-ए-विसाल में रख
मुझ ए'तिदाल से आरी को ए'तिदाल में रख

नचा रहा है मुझे उँगलियों पे इश्क़ तिरा
तमाम उम्र इसी रक़्स-ए-बे-मिसाल में रख

दुखी हो दिल तो उतरती है शाइ'री मुझ पर
तुझे ग़ज़ल की क़सम है मुझे मलाल में रख

तू चाहता है अगर कार-ए-आफ़ताब करूँ
मिरा उरूज मिरी साअ'त-ए-ज़वाल में रख

तिरे बग़ैर गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने
तू इस सितम की तलाफ़ी भी माह-ओ-साल में रख

तू दिल है और धड़कना तिरी इबादत है
सो ख़ुद को जिस्म से बाहर भी तू धमाल में रख

शिकम से हो के गुज़रते हैं क़ौल-ओ-फ़े'ल मिरे
मुझ ऐसे शख़्स को नान-ओ-नमक के जाल में रख

मिरे बदन को भले इस से आग लग जाए
चराग़-ए-हर्फ़ मगर मेरे बाल बाल में रख

मैं इस अज़ाब के नश्शे में मुब्तला हूँ 'कबीर'
पराई आग उठा कर मिरी सिफ़ाल में रख
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Kabeer Athar
जहाँ साँसें नहीं चलतीं वहाँ क्या चल रहा है
बहिश्त-ए-ख़ाक में ऐ रफ़्तगाँ क्या चल रहा है

पुराने दुख नए कपड़े पहन कर आ गए हैं
ये अपने शहर में आज़ुर्दगाँ क्या चल रहा है

ये जिन के अश्क मेरी जान को आए हुए हैं
मैं उन से पूछ बैठा था मियाँ क्या चल रहा है

हमारा भूक ने मुँह भर दिया है गालियों से
तुम्हारे बद-नसीबों के यहाँ क्या चल रहा है

हैं अश्कों के निशाने पर मुसलसल दुख हमारे
ये चालें हम से अंदोह-ए-जहाँ क्या चल रहा है

नदामत से मैं अपना मुँह छुपाता फिर रहा हूँ
ये मेरे दोस्तों के दरमियाँ क्या चल रहा है

यहाँ हर रोज़ होंटों के गिने जाते हैं टाँके
तुम्हारे शहर में शो'ला-बयाँ क्या चल रहा है

चला कर गोलियाँ मुझ पर परिंदों को बताओ
जहाँ पिंजरे नहीं बनते वहाँ क्या चल रहा है

तो फिर क़ाबू किया है हिज्र किस जादू से तुम ने
उदासी गर नहीं अफ्सुर्दा-गाँ क्या चल रहा है

हमारे रहबरों को जान के लाले पड़े हैं
तुम्हारे रहबरों में गुमरहाँ क्या चल रहा है
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Kabeer Athar
बिगड़ता ज़ख़्म-ए-हुनर आश्कारा करना पड़ा
हमें भी दाद का मरहम गवारा करना पड़ा

बहुत हवस थी मुझे रिज़्क़-ए-शेर की लेकिन
जो मिल रहा था उसी पर गुज़ारा करना पड़ा

खड़ी थी मेरे लिए आँसुओं की बारिश में
सो तेरी याद से मिलना गवारा करना पड़ा

मैं इस से कम पे ज़माना मुरीद कर लेता
ख़याल-ए-इश्क़ में जितना तुम्हारा करना पड़ा

मिला न एक भी आँसू दुरून-ए-चश्म मुझे
सो मुँह छुपा के दुखों से किनारा करना पड़ा

जो ख़्वाब नींद से भी छुप के देखता था मैं
किसी की आँख से उस का नज़ारा करना पड़ा

निगाह-ए-यार ने कुछ ऐसे ऐब ढूँढ लिए
तमाम कार-ए-मोहब्बत दोबारा करना पड़ा

अब उस सफ़र की सऊबत का क्या कहें जिस में
क़दम क़दम पे हमें इस्तिख़ारा करना पड़ा

सँभाली जाती नहीं रौशनी ज़मीं से 'कबीर'
सुपुर्द-ए-ख़ाक ये कैसा सितारा करना पड़ा
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Kabeer Athar
हम-साए से तलब करूँ पानी के बा'द क्या
रहता है होश नक़्ल-ए-मकानी के बा'द क्या

ये कैसी तोड़ फोड़ है शहर-ए-वुजूद में
आतंक मच गया है जवानी के बा'द क्या

पानी के पाँव काटने पे तुल गए हो तुम
दरिया में बच रहेगा रवानी के बा'द क्या

बातों के साथ मुँह से टपकने लगा है ख़ूँ
मर जाउँगा मैं हिज्र-बयानी के बा'द किया

उन को बताउँगा जिन्हें हूरों से इश्क़ है
दर-अस्ल होगा आलम-ए-फ़ानी के बा'द क्या

मैं देखता हूँ आँख में ख़्वाबों की मय्यतें
तुम देखते हो अश्क-फ़िशानी के बा'द क्या

शे'रों पे ज़ुल्म करते हैं जो जानते नहीं
करना है काम मिस्रा-ए-सानी के बा'द क्या

क्यूँ लफ़्ज़ लफ़्ज़ खोदते हो शे'र को 'कबीर'
शाइ'र निकालना है मआ'नी के बा'द क्या
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Kabeer Athar