Ahmad Musharraf Khawar

Ahmad Musharraf Khawar

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Ahmad Musharraf Khawar shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ahmad Musharraf Khawar's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
नज़र के पास रह कर भी पहुँच से दूर हो जाना
मोहब्बत में इसे कहते हैं हम मजबूर हो जाना

ख़ुशा ऐ दिल मुदावा उन के ज़ख़्मों का नहीं वर्ना
कहाँ हर ज़ख़्म की क़िस्मत में है नासूर हो जाना

बढ़ाना इस तरह से बे-क़रारी और भी दिल की
झलक उश्शाक़ को दिखला के फिर मस्तूर हो जाना

मोहब्बत का हमारा दायरा बस इत्तिबा' तक है
हमें ज़ेबा नहीं है सरमद-ओ-मंसूर हो जाना

नज़र छलके न छलके मुनहसिर है ज़र्फ़ पर लेकिन
है पहली शर्त दिल का दर्द से मामूर हो जाना

नज़र को ताब-ए-नज़्ज़ारा रही है तेरे जल्वों की
कि लाज़िम तो नहीं हर जल्वा-गह का तूर हो जाना

तुझे पा लेने का एहसास इस को कहते हैं शायद
तिरे आरिज़ को छू कर ज़ुल्फ़ का मग़रूर हो जाना

हमें क्या रास आए बादा-ओ-साग़र कि अपना तो
निगाहों पे है उन की मुनहसिर मख़मूर हो जाना

लिबास-ए-ख़ाक ही से जब मिरी सारी फ़ज़ीलत है
तो क्यूँ-कर ज़ेब है मुझ को भला फिर नूर हो जाना
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Ahmad Musharraf Khawar
हुआ वो ख़ूब-रू यूँ बे-हिजाब आहिस्ता आहिस्ता
नज़र देखे है जैसे कोई ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता

बने जैसे कली कोई गुलाब आहिस्ता आहिस्ता
यूँ कुछ उस शोख़ पर आया शबाब आहिस्ता आहिस्ता

बढ़ा है दर्द-ए-दिल और इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता
हुए आशिक़ गिरफ़्तार-ए-अज़ाब आहिस्ता आहिस्ता

है कैसा सेहर ये मदहोश कर के तिश्ना-लब रक्खा
पिलाई उस नज़र ने जो शराब आहिस्ता आहिस्ता

जफ़ाओं के तसलसुल में कोई वक़्फ़ा ज़रूरी है
दिवाना लाएगा सहने की ताब आहिस्ता आहिस्ता

मिसाल-ए-चाक हो कर रह गया गर्दां वजूद अपना
किसी ने यूँ किया ख़ाना-ख़राब आहिस्ता आहिस्ता

निबाही दोस्ती कुछ यूँ हमारी बादा-नोशी पर
करे है मोहतसिब भी एहतिसाब आहिस्ता आहिस्ता

न चाहा फिर भी जा पहुँचे उसी सहरा में दीवाने
दिखाया उस नज़र ने यूँ सराब आहिस्ता आहिस्ता

हुआ जब ख़त्म सरमाया तो फिर रख़्त-ए-सफ़र बाँधा
चुकाया ज़ीस्त का हम ने हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
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Ahmad Musharraf Khawar
यूँ देखने में तो बस ख़ाक-ए-मुख़्तसर हूँ मैं
मुझे कुरेद कभी ख़ुद में बहर-ओ-बर हूँ मैं

अज़ल से ता-ब-अबद फैली हैं जड़ें मेरी
कभी न आई ख़िज़ाँ जिस पे वो शजर हूँ मैं

है बा'द-ए-ख़ुल्द-बदर इक अज़ाब-ए-दर-बदरी
जिसे तलाश है मंज़िल की वो ख़िज़र हूँ मैं

कभी निगाहों में होता है आलम-ए-बाला
कभी वजूद से ही अपने बे-ख़बर हूँ मैं

है ज़ात मेरी कभी तो सभी दुखों का इलाज
कभी लगे है कि तिरयाक़-ए-बे-असर हूँ मैं

मिरे वजूद पे है मुनहसिर तिरी तादाद
अगरचे तेरी नज़र में बस इक सिफ़र हूँ मैं

समझ के हर्फ़-ए-मुकर्रर जो लौह-ए-हस्ती पर
ज़माना गरचे है मुनकिर मिरा मगर हूँ मैं

नहीं है बज़्म-ए-ख़िरद में जो मेरी क़द्र तो क्या
निगाह-ए-अहल-ए-जुनूँ में तो मो'तबर हूँ मैं

मिरी ज़बान-ए-सदाक़त का जुर्म है 'ख़ावर'
ज़माना मुझ को समझता है ख़ीरा-सर हूँ मैं
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Ahmad Musharraf Khawar
जो आई ख़ुशबू कभी तेरे पैरहन की तरह
गुलाब जलने लगे हैं मिरे बदन की तरह

ये तेरे नाज़-ओ-अदा तेरी शोख़ी-ओ-शन्गी
हैं दिल-फ़रेब बहुत तेरे बाँकपन की तरह

जुनूँ को रास तो आई सुकूनत-ए-सहरा
कहाँ वो लुत्फ़ मगर तेरी अंजुमन की तरह

हैं गुल हज़ारों शगुफ़्ता चमन चमन लेकिन
कहाँ वो निकहत-ए-गुल ज़ख़्म-ए-जान-ओ-तन की तरह

बहार चूम के आई है तेरी ज़ुल्फ़ कहीं
गुलाब महके हैं अब के तिरे बदन की तरह

नहीं है ताब-ए-नज़ारा इसी लिए शायद
वो रुख़ पे ज़ुल्फ़ सजा लेते हैं गहन की तरह

न छू के आई अगर तेरे जिस्म की ख़ुशबू
सबा है मुश्क-बू क्यूँ आहू-ए-ख़ुतन की तरह

न ज़िक्र-ए-क़ैस कहीं है न निस्बत-ए-फ़र्हाद
बदल गई है मोहब्बत भी फ़िक्र-ओ-फ़न की तरह

कहाँ कहाँ हो रफ़ू चारागर से अब 'ख़ावर'
जिगर भी चाक हुआ जाए पैरहन की तरह
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Ahmad Musharraf Khawar
आँखों में जो समाए न मंज़र लपेट दे
या मेरी फ़िक्र में कोई महशर लपेट दे

उन की निगाह-ए-मस्त का दिल में सुरूर है
साक़ी से कह दो बादा-ओ-साग़र लपेट दे

दुनिया को यूँ ख़बर तो हो आलाम-ए-ज़ीस्त की
काँटों के साथ आज गुल-ए-तर लपेट दे

हूँ महव-ए-ख़्वाब उन के तसव्वुर की गोद में
ऐ वक़्त अपने दर्द का बिस्तर लपेट दे

होता गुमाँ है देख के बे-ताबी-ए-नज़र
क़तरे में जैसे कोई समुंदर लपेट दे

अब हम करेंगे क़ुव्वत-ए-बाज़ू से फ़ैसला
मुंसिफ़ तू अपने अद्ल का दफ़्तर लपेट दे

सहरा से जब पलटने का इम्कान ही नहीं
हंगाम-ए-रोज़गार मिरा घर लपेट दे

आगाह रह यूँ सर्व-ओ-सनोबर न बन के जी
ऐसा न हो कि कोई तिरा सर लपेट दे

बार-ए-इलाह कर दे अता अज़्म-ए-हैदरी
या फिर समझ के हर्फ़-ए-मुकर्रर लपेट दे

सय्याद मैं जो हार गया हौसले की जंग
फिर ख़ुद कहूँगा तुझ से मिरे पर लपेट दे
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Ahmad Musharraf Khawar
बिखर न जा कहीं ख़ुद को मिरी पनाह में रख
हैं तुंद-ओ-तेज़ जो दरिया मिरी निगाह में रख

झुके न सर ये किसी आस्ताँ पे तेरे सिवा
तो वो ग़ुरूर-ओ-अना अपने कज-कुलाह में रख

ये कब कहा कि मोहब्बत से बाज़ रह लेकिन
पलट के आ भी सके रास्ता निगाह में रख

फ़रेब-ए-नफ़्स से महफ़ूज़ तो हो ज़ात मिरी
कहीं तो ख़ौफ़ कोई लज़्ज़त-ए-गुनाह में रख

रहेगा बाज़ कहाँ दिल भला मोहब्बत से
पर एक हर्फ़-ए-तसल्ली तो इंतिबाह में रख

मुक़ाबला तो अलग बात है हवाओं से
जला के एक दिया कोई पहले राह में रख

असीर हूँ न कहीं दाम-ए-हिर्स-ओ-दुनिया का
हमारा शौक़-ए-तलब अपनी बारगाह में रख

छुपे हैं कर्ब हज़ारों इस इक तबस्सुम में
गुलों की चाह जो कर ख़ार भी निगाह में रख

अभी ख़बर ही कहाँ तुझ को सोज़-ए-दिल क्या है
तो क़हक़हों को अभी रूह की कराह में रख

यही उजाले कभी छीन लेंगे बीनाई
ज़रा सा शौक़ अँधेरों का भी निगाह में रख
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Ahmad Musharraf Khawar
दिलों पे यूँ भी अजब इख़्तियार देखा है
जो पुर-सुकूँ थे उन्हें बे-क़रार देखा है

हिला सके न क़दम जिन के बादा-ओ-साग़र
उन्ही पे ज़ुल्फ़-ओ-नज़र का ख़ुमार देखा है

है इम्तिज़ाज अजब रंग-ओ-हुस्न का उस में
कि जिस ने देखा उसे बार-बार देखा है

खुला है राज़ पस-ए-मर्ग ज़ात का अपनी
फ़ज़ा में उड़ता हुआ जब ग़ुबार देखा है

जो आ सके न कभी क़ैद-ए-ज़ात में अपनी
उन्ही पे तेरा सभी इख़्तियार देखा है

जुनूँ ने कर भी लिया पार दर्द का सहरा
अभी ख़िरद को सर-ए-रहगुज़ार देखा है

बस इज़्तिराब-ओ-ख़लिश दर्द-ओ-आह और आँसू
हर एक दिल में वफ़ा का मज़ार देखा है

तो क्या लुभाएगी दिल को शगुफ़्तगी-ए-गुल
कि जब नज़र ने बदन की बहार देखा है

था जिन को नाज़ बहुत अपनी ख़ुश-लिबासी पर
रह-ए-जुनूँ में उन्हें तार-तार देखा है
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Ahmad Musharraf Khawar
ग़ुरूर-ज़ात कहीं नक़्द-ए-जाँ में छोड़ आए
वो आग फिर उसी आतिश-फ़िशाँ में छोड़ आए

अज़ाब-ए-हिज्र से तेरे विसाल-लम्हों तक
हम अपनी ज़ात कहीं दरमियाँ में छोड़ आए

तमाम उम्र फिर उस की तलाश में भटके
वो इक सुकून जो कच्चे मकाँ में छोड़ आए

न रास आया उसे मेरी ज़ात का ठहराव
तो ख़ुद को इस लिए बर्क़-ए-तपाँ में छोड़ आए

चुरा के वक़्त से अपने अज़ाब के लम्हे
ब-शक्ल-ए-संग यद-ए-मेहरबाँ में छोड़ आए

हुआ न यूँ कभी एहसास-ए-शिद्दत-ए-हिज्राँ
बदन की धूप तिरे जिस्म-ओ-जाँ में छोड़ आए

तिरी निगाह करे अब मदार की तअईन
सितारा अपना तिरी कहकशाँ में छोड़ आए

गुज़रता है कफ़-ए-सफ़्फ़ाक से या फिर सर से
मआल-ए-गुल तो यद-ए-बाग़बाँ में छोड़ आए

वहीं थी दर्ज हिकायात-ए-ना-सबूरी-ए-दिल
वो एक मोड़ जो तुम दास्ताँ में छोड़ आए
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Ahmad Musharraf Khawar
तसव्वुरात के ख़ाकों में तेरा अंग भरे
कभी मुसव्विर-ए-हस्ती कुछ ऐसा रंग भरे

चमक उठे मिरे ख़्वाब-ओ-ख़याल की दुनिया
यूँ मेरी ज़ात में जल्वों के जल-तरंग भरे

ख़याल-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ फिर न हो मोहब्बत में
तिरी निगाह कभी दिल में वो उमंग भरे

ठहर न जाए कहीं आज फिर से नब्ज़-ए-हयात
पिला वो जाम कि जो ख़्वाहिशों में जंग भरे

सुरूर दे वो कि हो वज्द में जुनूँ रक़्साँ
तो साज़ छेड़ कभी ऐसे भी तरंग भरे

पलट के वार भी करते कमीन-गाह पे क्या
हमें तो तीर ही बख़्शे गए हैं ज़ंग भरे

ब-तर्ज़-ए-नौ लिया जाए फिर इम्तिहान-ए-दिल
गुलाब शाख़ पे खिलने लगें जो संग भरे

हयात-ए-नौ ही करे जुम्बिशें अता उन को
नज़र से जाम पिलाए गए जो भंग भरे

भटक न जाएँ अगर हम तो क्या करें 'ख़ावर'
जमाल-ए-यार के रस्ते हैं जब सुरंग भरे
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Ahmad Musharraf Khawar
वजूद गरचे मिरा ख़ाक-ए-मुख़्तसर से उठा
मह-ओ-नुजूम का हल्क़ा मिरी शरर से उठा

बदल गया है मिरी किश्त-ए-जाँ ख़राबे में
वो हश्र जो कि तिरी चश्म-ए-फ़ित्नागर से उठा

जुनून-ए-शौक़ तो हर पल है गोया पा-ब-रिकाब
तकान कहती है अब पावँ को सफ़र से उठा

शराब-ए-वस्ल की मद-होशी है रग-ओ-पै में
असीर-ए-ज़ुल्फ़ को अब हुस्न के असर से उठा

न क़त्अ की है ज़रूरत न एहतियाज-ए-क़फ़स
यक़ीन ही जो परिंदे का बाल-ओ-पर से उठा

मह-ओ-नुजूम मिरे बख़्त पर थे रशक-कुनां
ग़ुबार बन के मैं जब तेरी रह-गुज़र से उठा

सवाल-ए-नज़्र-ए-करम क्या कि तेरी दीद के बा'द
मैं बे-मुराद कहाँ तेरे संग-ए-दर से उठा

लरज़ के रह गया क़ातिल भी चंद साअ'त को
जब इर्तिआ'श मिरे जिस्म-ए-बे-असर से उठा

तमाम उम्र रही उस की जुस्तुजू 'ख़ावर'
जो दर्द बन के कभी दिल कभी जिगर से उठा
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Ahmad Musharraf Khawar
यूँ तो इन आँखों में आता है नज़र दरिया मुझे
फिर भी उस का क़ुर्ब रखता है बहुत प्यासा मुझे

ज़िंदगी बस यार के ग़म पर नहीं है मुनहसिर
रात दिन बेचैन रखता है ग़म-ए-दुनिया मुझे

अब तो इन ज़ख़्मों से मेरी आश्नाई हो गई
चारागर बेहतर यही है अब न कर अच्छा मुझे

मैं कि जिस के वास्ते बरसों रहा इक आबजू
जाते जाते कर गया वो रेत का सहरा मुझे

वज़्अ कैसी कैसी बदलूँ तेरी ख़ातिर ज़िंदगी
छोड़ रहने दे ज़रा जैसा भी हूँ वैसा मुझे

जब से वो दिल में बसा है ज़ात मेरी अंजुमन
कैसे ये कह दूँ किया है इश्क़ ने रुस्वा मुझे

इस लिए मुझ से गुरेज़ाँ हैं सहारे आज भी
ज़िंदगी हर मोड़ तक ले कर गई तन्हा मुझे

नर्म हो मिट्टी तो शायद खिल उठें चाहत के फूल
मैं कि इक बादल हूँ अपनी ज़ात पर बरसा मुझे

हो के 'ख़ावर' भी इसी के लुत्फ़ से रौशन हूँ मैं
बे-रुख़ी उस की बना देगी शब-ए-यलदा मुझे
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