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नज़र के पास रह कर भी पहुँच से दूर हो जाना  - Ahmad Musharraf Khawar

नज़र के पास रह कर भी पहुँच से दूर हो जाना
मोहब्बत में इसे कहते हैं हम मजबूर हो जाना

ख़ुशा ऐ दिल मुदावा उन के ज़ख़्मों का नहीं वर्ना
कहाँ हर ज़ख़्म की क़िस्मत में है नासूर हो जाना

बढ़ाना इस तरह से बे-क़रारी और भी दिल की
झलक उश्शाक़ को दिखला के फिर मस्तूर हो जाना

मोहब्बत का हमारा दायरा बस इत्तिबा' तक है
हमें ज़ेबा नहीं है सरमद-ओ-मंसूर हो जाना

नज़र छलके न छलके मुनहसिर है ज़र्फ़ पर लेकिन
है पहली शर्त दिल का दर्द से मामूर हो जाना

नज़र को ताब-ए-नज़्ज़ारा रही है तेरे जल्वों की
कि लाज़िम तो नहीं हर जल्वा-गह का तूर हो जाना

तुझे पा लेने का एहसास इस को कहते हैं शायद
तिरे आरिज़ को छू कर ज़ुल्फ़ का मग़रूर हो जाना

हमें क्या रास आए बादा-ओ-साग़र कि अपना तो
निगाहों पे है उन की मुनहसिर मख़मूर हो जाना

लिबास-ए-ख़ाक ही से जब मिरी सारी फ़ज़ीलत है
तो क्यूँ-कर ज़ेब है मुझ को भला फिर नूर हो जाना

- Ahmad Musharraf Khawar

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