Maaz Aiz

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@maaz-aiz

Maaz Aiz shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Maaz Aiz's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
जब तुझ से मिला हूँ तो तुझे यार कहा है
जब मिल न सका हूँ तो दिल-आज़ार कहा है

तू नूर-ए-नज़र जान-ए-जिगर रश्क-ए-क़मर है
ओ रूह-ए-तग़ज़्ज़ुल तुझे गुलनार कहा है

देखा जो तनासुब तिरे आ'ज़ा-ए-बदन का
हर उज़्व को गुल ख़ुद तुझे गुलज़ार कहा है

अब तक तिरी बातों की हलावत नहीं जाती
जो तू ने कहा मैं ने वो सौ बार कहा है

पूछी मिरी हाजत जो किसी ने शब-ए-यलदा
मशअ'ल की बजाए तिरा रुख़्सार कहा है

तस्वीरें मुसव्विर ने बनाईं तो बहुत पर
सब ने तिरी तस्वीर को शहकार कहा है

जब ख़ूब हुई मद्ह सितारों की तो मैं ने
सब को तिरे तलवों का परस्तार कहा है

जब मुझ से हुई मा'नी-ए-मेहराब की पुर्सिश
उँगली से तिरे अबरू-ए-ख़मदार कहा है

देखा जो मगस ने तिरे गुलफ़ाम लबों को
ख़ुद को गुल-ओ-गुलज़ार से बेज़ार कहा है

आँखें रम-ए-आहू-ओ-तिलिस्मात का संगम
ऐना के लक़ब का तुझे हक़दार कहा है

'आइज़' ये तिरा ख़्वाब मगर वाए नदामत
लोगों ने इसे इश्क़ का इज़हार कहा है
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Maaz Aiz
मैं ने लाख देखे सितम मगर ये तिरा सितम तो अजीब है
कभी पास हो के भी दूर है कभी दूर हो के क़रीब है

मैं बिगड़ गया तिरी इक नज़र से वगर्ना मुझ को तो देख कर
ये गली की औरतें बोलतीं इसे देखो कैसा नजीब है

तू हो सामने तो भी बे-ख़ुदी न हो सामने तो भी दिल जले
मिरे किस गुनह की सज़ा ये दी कि तपीदगी ही नसीब है

तिरे सेहर का मैं शिकार हो के तिरे क़रीब जो आ गया
तो पता चला ये मुझे कि तुझ से जो दूर है वो लबीब है

ये दुआ भी है कि न वस्ल हो ये दुआ भी है कि न हिज्र हो
मिरे मर्ज़-ए-दिल का सबब है तू मिरे दिल का तू ही तबीब है

कभी बे-रुख़ इतना कि ख़ार हो कभी मुल्तफ़ित तो निसार हो
तिरी ये अदा भी हबीब है तिरी वो अदा भी हबीब है

ये ज़माना अहल-ए-ज़माना सब मुझे भूल जाएँ गिला नहीं
तू न भूलना कि 'मआज़' भी तिरे मय-कदे का रक़ीब है
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ज़रा अंदाज़-ए-क़ज़ा अब के कड़ा लगता है
वो नया यार मिरा शोख़ बड़ा लगता है

कभी हमदर्द कभी दर्द-फ़ज़ा लगता है
वो सितम-गर है मगर होश-रुबा लगता है

बे-नियाज़ी तो है दस्तूर-ए-हसीनाँ लेकिन
वो हसीं हो के हसीनों से जुदा लगता है

कभी दीदार कराए कभी बातें कर ले
कभी गुफ़्तार से ख़ुद मुझ पे फ़िदा लगता है

कभी पैकान-ए-नज़र से मुझे घायल कर दे
कभी नज़रों से सरापा-ए-हया लगता है

कभी क़ुर्बान लगे तर्ज़-ए-तकल्लुम से वो
कभी मैं बात करूँ तो भी ख़फ़ा लगता है

सबब-ए-ज़ुल्मत-ए-दिल भी हैं उसी की यादें
मिरे दिल का वही ज़ौ-रेज़ दिया लगता है

मैं ने हर बार मोहब्बत में जफ़ा पाई है
मगर इस बार वो पाबंद-ए-वफ़ा लगता है

ये मिरी ख़ाम-ख़याली है हक़ीक़त ये है
वो भी क़ातिल है फ़क़त वार नया लगता है

यही अब राय-ए-ख़िरद है कि भुला दूँ उस को
जो कि अफ़्कार-ओ-तख़य्युल में बसा लगता है

वही अंजाम हुआ जिस से हिरासाँ था दिल
दिल-ए-मजरूह का हर ज़ख़्म खुला लगता है
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