Qamar Jameel

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Qamar Jameel shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Qamar Jameel's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
  • Nazm
वो बातें इश्क़ कहता था कि सारा घर महकता था
मिरा महबूब जैसे गुल था और बुलबुल चहकता था

सफ़र में शाम हो जाती तो दिल में शमएँ जल उठतीं
लहू में फूल खिल जाते जहाँ ग़ुंचा चटकता था

कभी मैं सर्व की सूरत नज़र आता था यारों को
कभी ग़ुंचे की सूरत अपने ही दिल में धड़कता था

ख़ुदा जाने मैं उस के साथ रहता था कि आईना
मिरे पर्दे में अपने-आप को हैरत से तकता था

ख़ुदा जाने वो कैसा आदमी था जिस के माथे पर
कोई बिंदिया लगाता था तो इक जुगनू चमकता था

कभी रहता था उस के साथ मैं उस के गरेबाँ में
कभी फ़ुर्क़त में अपने आइने पर सर पटकता था

अँधेरी रात जब सावन में आती थी तो इक बुलबुल
ख़ुदा जाने कहाँ से आ के मेरे घर चहकता था
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Qamar Jameel
आसमाँ पर इक सितारा शाम से बेताब है
मेरी आँखों में तुम्हारा ग़म नहीं है ख़्वाब है

रात दरिया आईने में इस तरह आया कि मैं
ये समझ कर सो गया दरिया नहीं इक ख़्वाब है

कामनी सूरत में भी इक आरज़ू है महव-ए-ख़्वाब
साँवली रंगत में भी इक वस्ल का कम-ख़्वाब है

मेरी ख़ातिर कुछ सुनहरी साँवली मिट्टी भी थी
वर्ना उस का जिस्म सारा रौशनी का ख़्वाब है

आसमाँ इक बिस्तर-ए-संजाब लगता है मुझे
और ये क़ौस-ए-क़ुज़ह जैसे कोई मेहराब है

किस के इस्तिक़बाल को उट्ठे थे दीवानों के हाथ
किस के मातम को यहाँ ये मजमा-ए-अहबाब है

या इलाहाबाद में रहिए जहाँ संगम भी हो
या बनारस में जहाँ हर घाट पर सैलाब है

इस नहंग-ए-तिश्ना से ज़ोर-आज़मा हो कर 'जमील'
भूल मत जाना कि आगे भी वही गिर्दाब है
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Qamar Jameel
शाम अजीब शाम थी जिस में कोई उफ़क़ न था
फूल भी कैसे फूल थे जिन को सुख़न का हक़ न था

यार अजीब यार था जिस के हज़ार नाम थे
शहर अजीब शहर था जिस में कोई तबक़ न था

हाथ में सब के जिल्द थी जिस के अजीब रंग थे
जिस पे अजीब नाम थे और कोई वरक़ न था

जैसे अदम से आए हों लोग अजीब तरह के
जिन का लहू सफ़ेद था जिन का कलेजा शक़ न था

जिन के अजीब तौर थे जिन में कोई किरन न थी
जिन के अजीब दर्स थे जिन में कोई सबक़ न था

लोग कटे हुए इधर लोग पड़े हुए उधर
जिन को कोई अलम न था जिन को कोई क़लक़ न था

जिन का जिगर सिया हुआ जिन का लहू बुझा हुआ
जिन का रफ़ू किया हुआ चेहरा बहुत अदक़ न था

कैसा तिलिस्मी शहर था जिस के तुफ़ैल रात भी
मेरे लहू में गर्द थी आईना-ए-शफ़क़ न था
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Qamar Jameel
दस्त-ए-जुनूँ में दामन-ए-गुल को लाने की तदबीर करें
नर्म हवा के झोंको आओ मौसम को ज़ंजीर करें

मौसम-ए-अब्र-ओ-बाद से पोछें लज़्ज़त-ए-सोज़ाँ का मफ़्हूम
मौजा-ए-ख़ूँ से दामन-ए-गुल पर हर्फ़-ए-जुनूँ तहरीर करें

आमद-ए-गुल का वीरानी भी देख रही है क्या क्या ख़्वाब
वीरानी के ख़्वाब को आओ वहशत से ताबीर करें

रात के जागे सुब्ह की हल्की नर्म हवा में सोए हैं
देखें कब तक नींद के माते उठने में ताख़ीर करें

तन्हाई में काहिश-ए-जाँ के हाथों किस आराम से हैं
कैसे अपने नाज़ उठाएँ क्या अपनी तहक़ीर करें

बेताबी तो ख़ैर रहेगी बेताबी की बात नहीं
मरना इतना सहल नहीं है जीने की तदबीर करें

घूम रहे हैं दश्त-ए-जुनूँ में उन के क्या क्या रूप 'जमील'
किस को देखें किस को छोड़ें किस को जा के असीर करें
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Qamar Jameel
किस सफ़र में हैं कि अब तक रास्ते नादीदा हैं
आसमाँ पे शमएँ रौशन हैं मगर ख़्वाबीदा हैं

कितनी नम है आँसुओं से ये सनम-ख़ाने की ख़ाक
ये तवाफ़-ए-गुल के लम्हे कितने आतिश-दीदा हैं

ये गुलिस्ताँ है कि चलते हैं तमन्नाओं के ख़्वाब
ये हवा है या बयाबाँ के क़दम लर्ज़ीदा हैं

एक बस्ती इश्क़ की आबाद है दिल के क़रीब
लेकिन इस बस्ती के रस्ते किस क़दर पेचीदा हैं

आज भी हर फूल में बू-ए-वफ़ा आवारा है
आज भी हर ज़ख़्म में तेरे करम पोशीदा हैं

आज घर के आईने में सुब्ह से इक शख़्स है
और खिड़की में सितारे शाम से पेचीदा हैं

रहगुज़र कहती है जाग ऐ माहताब-ए-शाम-ए-यार
हम सर-ए-बाज़ार चलते हैं मगर ख़्वाबीदा हैं

आइने में किस की आँखें देखता हूँ मैं 'जमील'
दो कँवल हैं बीच पानी में मगर नम-दीदा हैं
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