तिरी यादों के चराग़ों में ये जलती हुई रात
मिरी आँखों से छलकती रही ढलती हुई रात
सम-ए-इमरोज़ से मारा हुआ हारा हुआ दिन
किसी फ़र्दा की उमीदों पे बहलती हुई रात
कभी आँखों में रुके कोई गुज़रता हुआ पल
कभी साँसों में अटक जाती है चलती हुई रात
न टला है कभी ज़ख़्मों में सुलगता हुआ दिन
न थमी है कभी अश्कों में उबलती हुई रात
मिरे हाथों की लकीरों में मशक़्क़त दिन की
मिरे ख़्वाबों के मुक़द्दर में है ढलती हुई रात
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