वक़्त के बदलने में देर कितनी लगती है
इक चराग़ जलने में देर कितनी लगती है
तुझ को ज़ो'म है अपने हुस्न पर बहुत लेकिन
दिलकशी को ढलने में देर कितनी लगती है
इस मुसाबक़त में हम गिर कभी गए तो क्या
गिर के फिर सँभलने में देर कितनी लगती है
आशिक़ी के दावों को सच भी मान लें तो क्या
रास्ता बदलने में देर कितनी लगती है
सर उठाए फिरता है क्यों तू फ़ानी दुनिया में
साँस के निकलने में देर कितनी लगती है
बे-वफ़ा है वो माना पर वो लौट आए तो
'ज़ैन' दिल पिघलने में देर कितनी लगती है
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