रोज़ दिल जा के तुम पे मरता था
रोज़ इक़ खून करना पड़ता था
रोज़ वो पढ़ने आया करती थी
उसका जाना बड़ा अखरता था
उस की तस्वीर देखे बिन नासेह
मेरा दिन भी नहीं गुज़रता था
रोज़ वो, फ़ोन करने वाली थी
और मैं इंतज़ार करता था
बीच मे एक कॉल आती थी
और फिर उसको रखना पड़ता था
रोज़ इक़ ज़ख्म दे रहा था मुझे
और वो ग़ैरो के घाव भरता था
एक पत्थर में जान बसती थी
उसको खोने से खूब डरता था
आप अब हाल पूछने आये
मर गया वो जो तुम पे मरता था
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