अगर अहद-ए-वफ़ा को तोड़ना था तो जता देती

  - Hemant Sakunde

अगर अहद-ए-वफ़ा को तोड़ना था तो जता देती
वजह रुख़्सत की मैं सुन लेता तू जो भी सुना देती

भटकता ही रहा मैं उम्र भर ख़ाना-ब-दोशी में
तुझे मालूम थी मंज़िल सफ़र की तो बता देती

मेरे घर की तरफ़ वो ख़त पुराने खींच लाएँगे
जलाकर उन ख़तों को तू पता मेरा भुला देती

बता क्या कोई मंज़र बाक़ी है मेरी निगाहों को
जुदा होने से पहले रौशनी इनकी बुझा देती

न आसाँ मय-कदे का रास्ता उससे तो अच्छा था
कि साक़ी हाथ में तू ही वो जाम-ए-मय थमा देती

भले ही वो फ़साना था मगर वो ख़्वाब अच्छा था
अगर ये अस्लियत है तो तू फिर मुझको सुला देती

कभी पुर्सिश करे कोई फ़िराक़-ए-यार की मुझसे
मेरी मासूमियत मासूम तुझको ही बता देती

रज़ा 'हेमंत' की जब पूछता था ये जहाँ तुझसे
नुमाइश ज़हमतों की ये ग़ज़ल उनको सुना देती

  - Hemant Sakunde

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