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मिन्नतें करता था रुक जाओ मिरा कोई नहीं - Khan Janbaz

मिन्नतें करता था रुक जाओ मिरा कोई नहीं
मेरे रोके से मगर कौन रुका कोई नहीं

दोस्त माशूक़ सनम और ख़ुदा कोई नहीं
मैं तो सब का हूँ पर अफ़्सोस मिरा कोई नहीं

अब तो लाज़िम है कि वो शख़्स मिरा हो जाए
अब तो दुनिया में मिरा उस के सिवा कोई नहीं

उम्र भर साथ निभाने का ये वा'दा हाए
उम्र भर साथ भला कोई रहा कोई नहीं

मेरे मौला ये तिरे सात अरब लोगों में
कोई भी मेरा नहीं है ब-ख़ुदा कोई नहीं

बेवफ़ाई को बड़ा जुर्म बताने वाले
याद है तू ने भी चल छोड़ हटा कोई नहीं

मैं भी क़ाइल हूँ तिरी चारागरी का लेकिन
इक मरज़ ऐसा भी है जिस की दवा कोई नहीं

- Khan Janbaz

Chaaragar Shayari

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