ख़ुद को उस वक़्त निखारा होता
तो बुलंदी पे सितारा होता
रोकता कौन हमें दुनिया में फिर
गर उधर से भी इशारा होता
धूल से भर गई गुल्लक वर्ना
मैं तुझे सब से पियारा होता
जिस्म जज़्बात जिगर को मैंने
और किसी तन में उतारा होता
यूँ न उलझाता लटें ज़िन्दगी की
ज़ुल्फ़ को इस की सँवारा होता
बहता हूँ दर्द के जिस दरिया में
कोई तो इसका किनारा होता
रास बर्बादी ही आई वर्ना
मैं हर इक आँख का तारा होता
लम्हा जो गुज़रा दो लम्हे पहले
लम्हा वो हँस के गुज़ारा होता
क्यों दी आवाज़ तुझे डूबते वक़्त
काश तुझ को न पुकारा होता
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