ख़यालात में अपने हम ख़्वाब को चूमते हैं

  - Muntazir shrey

ख़यालात में अपने हम ख़्वाब को चूमते हैं
कुच इस तौर हर एक लम्हा उन्हें सोचते हैं

तसव्वुर कराए है एहसास मौजूदगी का
ज़रूरी नहीं हो मुख़ातिब जिन्हें चाहते हैं

रही उम्र भर ग़म-गुसारी भी दरकार हम को
मिले ही नहीं फिर हमें अश्क जो पोंछते हैं

कहीं बन न जाए ये रुसवाई का ही सबब श्रेय
जो हम इस तरह बा-मुहब्बत उसे देखते हैं

  - Muntazir shrey

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