ख़यालात में अपने हम ख़्वाब को चूमते हैं
कुच इस तौर हर एक लम्हा उन्हें सोचते हैं
तसव्वुर कराए है एहसास मौजूदगी का
ज़रूरी नहीं हो मुख़ातिब जिन्हें चाहते हैं
रही उम्र भर ग़म-गुसारी भी दरकार हम को
मिले ही नहीं फिर हमें अश्क जो पोंछते हैं
कहीं बन न जाए ये रुसवाई का ही सबब श्रेय
जो हम इस तरह बा-मुहब्बत उसे देखते हैं
As you were reading Shayari by Muntazir shrey
our suggestion based on Muntazir shrey
As you were reading undefined Shayari