हम ने तब से हयात पाई है
जब से तुझ पर ये जाँ लुटाई है
ये बदन अब से पहले लाशा था
आप आए तो जान आई है
ख़त्म होने का नाम लेती नइँ
ये मुहब्बत अजब पढ़ाई है
दिल पे क्यों नईं चले मिरे ख़ंजर
सूनी सूनी तिरी कलाई है
मुख़्तसर ये है वो जो बंदा है
मेरी आँखों की रौशनाई है
यार तशरीफ़ लाने वाले हैं
हमने बज़्म-ए-तरब सजाई है
उसके माथे पे ताज रक्खा है
उसकी तस्वीर जब बनाई है
क़ल्ब-ए-मुज़्तर में बेक़रारी है
उसने जब से सदा लगाई है
ये नशा उम्र भर न उतरेगा
उसने आँखों से मय पिलाई है
क़ैस ऐसे नहीं बने हैं हम
हमने सहरा की ख़ाक उड़ाई है
मैं परिंदा हूँ क़ैद ख़ाने का
मेरी क़िस्मत में कब रिहाई है
हज़रत-ए-दिल हैं मसनद-ए-ग़म पर
ये लब-ए-चश्म में दुहाई है
हक़ को बे ख़ौफ़ हक़ मैं कहता हूँ
मुझ में बस एक ये बुराई है
किस से शिकवा करें ज़माने में
बे वफ़ाई ही बे वफ़ाई है
रक़्स करना ही बे हयाई नइँ
बे रिदाई भी बे हयाई है
ये उदासी ये रंज ये आँसू
उम्र भर की मिरे कमाई है
मक़सद-ए-करबला भुला देना
साथ सरवर के बे वफ़ाई है
उसकी आँखें कभी न नम होवें
नींद जिसने मिरी चुराई है
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