चले हैं हिंद के सैनिक ज़फ़र को
कटा लेंगे झुकाएँगे न सर को
कि सूखे टुंड पर लगते नहीं फल
गिरा दो काट दो अब इस शजर को
नहीं उस्ताद कोई उनके जैसा
जो समझाए सुख़न के हर भँवर को
ग़ज़ल है मुंतज़िर इस्लाह को इक
मिलो गर तुम तो ये कहना "समर" को
दो रोटी और बस कपड़ा मकान इक
नहीं काफ़ी ओ दीवाने गुज़र को
तुझे लड़ना है प्रतिपल ज़िंदगी से
मिला नज़रें डरा दे अपने डर को
जुदा होकर वो देखो इक सफ़र से
चला है दिल मिरा फिर इक सफ़र को
महब्बत के मरीजों पर मिरी जाँ
तरस आये हर इक दीवार दर को
दवाएँ फेल होती जा रही हैं
सभी मिलकर दुआ भेजो असर को
मैं अपनी ज़िंदगी में ऐसा उलझा
लगी दीमक मेरे दस्त-ए-हुनर को
तुम्हें गर सुर्ख़र-रू होना है यारो
जला दो फूँक दो दिल के नगर को
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