अगर तू ठिकाना पता भूल जाए
मोहब्बत भी अपना मज़ा भूल जाए
तेरा हुस्न है एक गुम-सुम कहानी
दुआ देने वाला दुआ भूल जाए
असीरान-ए-'इश्क़-ए-बुताँ कुछ नहीं हैं
फ़रिश्ता भी नाम-ए-ख़ुदा भूल जाए
यही चाहता हूँ ख़ुदा से कि तुझको
ज़माना ही मेरे सिवा भूल जाए
बहुत दूर से चलकर आया मिरा दिल
कहीं हो न ऐसा वफ़ा भूल जाए
अरे तुझको फिर से बसा लूँगा दिल में
अगर तू भी मेरी ख़ता भूल जाए
अगर देख ले ख़्वाब में बाँकपन तो
हसीनों का मुंसिफ़ सज़ा भूल जाए
सुख़न-बर हमें देख ले अंजुमन में
सुख़न फिर तो उसका चचा भूल जाए
As you were reading Shayari by Prashant Kumar
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