हमारे रु-ब-रू दुनिया बहुत बेदीन लगती है
बिना मतलब के ख़ुद्दारी अरे तौहीन लगती है
हमारी आँख के काजल से रौशन है तुम्हारी आँख
हमारे बिन तुम्हारी आँख तो लौहीन लगती है
अगर देखें तो ये महफ़िल अँगूठा-टेक है बिल्कुल
मगर जब हम चले आते तो फिर परवीन लगती है
ख़ुदा तो था ही पत्थर का अब इंसाँ भी हैं पत्थर के
मुझे अब तो कली फूलों की भी संगीन लगती है
अरे बेहोश हो जाएगा अब की देख लेगा तो
उधर जो पंडितानी थी बहुत रंगीन लगती है
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