जैसे-तैसे खा-खा कर ही सड़कों पे गुज़ारा करते हैं - Prashant Kumar

जैसे-तैसे खा-खा कर ही सड़कों पे गुज़ारा करते हैं
हम ठहरे फ़कीरों के बच्चे हर दर्द गवारा करते हैं

कुछ लोग भिकारी की इज़्ज़त का ऐसे तमाशा करते हैं
दो खोटे सिक्कों के बदले तस्वीर उतारा करते हैं

देखें तो ग़रीबों के बच्चे ईमान के सच्चे होते हैं
साँसों को गिरवी धर-धर के एहसान उतारा करते हैं

मशहूर हुनर-मंदी है सो तो जन्नत से तह-ख़ाने तक
शीशे के औज़ारों से हम पत्थर को निखारा करते हैं

बस रोटी पानी और दवाई सबके मुल्क में मुफ़्त मिले
रोज़ इस दरख़्वास्त की ख़ातिर हम साँसों का ख़सारा करते हैं

रूखी-सूखी चटनी जो भी हो सब मिल बाँट के खाते हैं
ज़्यादा का लोभ नहीं हमको थोड़े में गुज़ारा करते हैं

बस दिल को तसल्ली देते हैं फिर हाथ हिला देते हैं सब
आते ही नहीं हैं दर्द में हम बहुतों को पुकारा करते हैं

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सदियों भूखे रहते हैं
महसूस नहीं होने देते पानी से गुज़ारा करते हैं

कोई भी दिक्कत हो चाहे वो ज्ञान सभी को देते हैं
जब ख़ुद पर बात आती है तो ऊपर को निहारा करते हैं

अतराफ़ हमारे घरौंदे के कोई चिंगारी दिख जाए
तो लोग अलग हट-हट कर फिर तूफ़ाँ को इशारा करते हैं

न मिलेगा हम सा कारीगर चाहो तो ढूँढ लो दुनिया में
शीशा पत्थर दिल हुस्न अरे हर चीज़ सँवारा करते हैं

- Prashant Kumar
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