पहले महफ़िल में बुलाते हैं तिरे शहर के लोग
बाद में मुझको भगाते हैं तिरे शहर के लोग
तू कहाँ तक मुझे निर्दोष करेगी साबित
सभी इल्ज़ाम लगाते हैं तिरे शहर के लोग
मिरे दम से ही तो जलते हैं सभी के चूल्हे
मुझे जल्लाद बताते हैं तिरे शहर के लोग
अब कहाँ जाऊँ कहीं और ठिकाना भी नहीं
तिरे कूचे से भगाते हैं तिरे शहर के लोग
मैं तो बेहोश तिरी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू से हुआ
मुझे क्या-क्या न सुँघाते हैं तिरे शहर के लोग
कल तिरे घर से निकलते हुए देखा था सो
अब मिरी ताक लगाते हैं तिरे शहर के लोग
इनका भी कौन है इंसाँ के सिवा दुनिया में
क्यूँ परिंदों को उड़ाते हैं तिरे शहर के लोग
ऐसे थोड़ी न मैं बर्बाद हुआ हूँ ख़ालिक़
राज़ दुश्मन को बताते हैं तिरे शहर के लोग
भूत बनकर मिरी खिड़की पे सभी आते हैं
अरे दिन में भी डराते हैं तिरे शहर के लोग
अरे मुंसिफ़ मुझे करता है बरी बा-इज़्ज़त
सज़ा-ए-मौत सुनाते हैं तिरे शहर के लोग
सच बिना बात के पहले तो हँसाते हैं सभी
बाद में ख़ूब रुलाते हैं तिरे शहर के लोग
मेरी गर्दन भी दबाते हैं घुसा के ख़ंजर
और नश्तर भी चलाते हैं तिरे शहर के लोग
As you were reading Shayari by Prashant Kumar
our suggestion based on Prashant Kumar
As you were reading undefined Shayari