हमे इश्क़ के जितने मारे मिले हैं
मुक़द्दर से सब लोग हारे मिले हैं
मरे हैं सनम पर, सहे हैं सितम भी
दिवाने सभी ही बिचारे मिले हैं
वफ़ा की इमारत भी तामीर कर के
हुआ कुछ नहीं बस ख़सारे मिले हैं
जहाँ से परे है क़लंदर मोहल्ला
सभी आँख पर से उतारे मिले हैं
सफ़र हिज्र का मेरा आसान यूँ है
मुझे कैस के सब इशारे मिले हैं
बहारें मिले ये मुकद्दर कहाँ है
गुलाबों के भी होंठ खारे मिले हैं
घड़ी, इत्र, जंगल, जुदाई, ग़म-ए-दिल,
मुझे उससे तोहफ़े ये सारे मिले हैं
समंदर न सहरा न कोई ज़मीं है
ये ख़्वाबों में कैसे किनारे मिले हैं
मुनव्वर है दर्द-ए-सुख़न मेरे हिस्से
मोहब्बत में ये इस्तिआरे मिले हैं
अभी इसको सय्यद ख़ामोशी से पढ़ तू
तुझे इश्क़ के जो सिपारे मिले हैं
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