हश्र सा बरपा है हर सू रोज़-ए-महशर के बग़ैर
बात तक करता न कोई तेग़-ओ-ख़ंजर के बग़ैर
इंक़िलाबी हौसला है पर वसीला कुछ नहीं
हैं गुलेलें हाथ में लेकिन हैं कंकर के बग़ैर
अब ये दिन दिखला रही हैं हमको फ़ाक़ा मस्तियाँ
थे कभी घर से परेशाँ और अब घर के बग़ैर
शाम होते ही परिंदे लौट कर आने लगे
पाएगा आख़िर कोई कब तक सुकूँ घर के बग़ैर
क्या गुज़रती है जुदा होता है जब लख़्त-ए-जिगर
कौन समझेगा भला ये दर्द दुख़्तर के बग़ैर
दर कोई हो बस अक़ीदत से है जुड़ना लाज़मी
दर-ब-दर फिरता है इन्साँ निस्बत-ए-दर के बग़ैर
कुहना तहज़ीब-ओ-रिवायत के निशाँ मिटने लगे
कौन पहचानेगा इन क़ब्रों को पत्थर के बग़ैर
ज़िन्दगी में है अहम किरदार-ए-क़िस्मत भी कभी
बा-हुनर भी बे-हुनर लगता मुक़द्दर के बग़ैर
आबरू-रेज़ी में मुंसिफ़ आपका बेटा भी था
कहिए अब क्या दे सकोगे फ़ैसला डर के बग़ैर
अब दुआएँ दूँ उसे या बद्दुआएँ ऐ 'बशर'
कर दिया सैयाद ने मुझको रिहा पर के बग़ैर
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