हाल उस तरफ़ का जानना दुश्वार है बशर
काफ़ी बुलन्द बीच की दीवार है बशर
सर पर अजल खड़ी है कहाँ साया-ए-शजर
समझे हो जिसको शाख़ वो तलवार है बशर
जिस शख़्स से मिलोगे तमाशा दिखाएगा
जो भी है इस नगर में कलाकार है बशर
फिर ये सज़ा के ख़ौफ़ से घबरा रहे हो क्यूँ
तुमको तो अपने जुर्म का इक़रार है बशर
अपनी ग़रज़ से मिलते हैं इक दूसरे से लोग
कोई किसी का यार न ग़म-ख़्वार है बशर
हीरा नहीं जो मोल बताते हुए फिरो
कौन इस जहाँ में दिल का ख़रीदार है बशर
होते यहाँ हैं जल्वा-ए-यूसुफ़ के सौदे भी
दुनिया तमाम मिस्र का बाज़ार है बशर
गरचे ख़ुदा-नुमा है कोई तो 'बशर' ही है
बज़्म-ए-बुताँ में एक ही फ़नकार है 'बशर'
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