हज़ार सहरा थे रस्ते में यार क्या करता
जो चल पड़ा था तो फ़िक्र-ए-ग़ुबार क्या करता
कभी जो ठीक से ख़ुद को समझ नहीं पाया
वो दूसरों पे भला एतिबार क्या करता
चलो ये माना कि इज़हार भी ज़रूरी है
सो एक बार किया, बार बार क्या करता
इसी लिए तो दर-ए-आइना भी वा न किया
जो सो रहे हैं उन्हें होशियार क्या करता
वो अपने ख़्वाब की तफ़्सीर ख़ुद न कर पाया
जहान भर पे उसे आश्कार क्या करता
अगर वो करने पे आता तो कुछ भी कर जाता
ये सोच मत कि अकेला शरार क्या करता
सिवाए ये कि वो अपने भी ज़ख़्म ताज़ा करे
मिरे ग़मों पे मिरा ग़म-गुसार क्या करता
बस एक फूल की ख़ातिर बहार माँगी थी
रुतों से वर्ना मैं क़ौल-ओ-क़रार क्या करता
मिरा लहू ही कहानी का रंग था 'जव्वाद'
कहानी-कार उसे रंग-दार क्या करता
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