था मरासिम आरज़ी जिसको फ़ना होना ही था
कब तलक हम तुम निभाते सो जुदा होना ही था
कह गई सब वाक़िया ग़म का हमारी चश्म-ए-नम
इश्क़ में दिल टूटने का हादिसा होना ही था
रब्त में महफ़ूज़ ख़ुद को हम तुम्हारी समझे थे
बेवफ़ाई में भरोसा लापता होना ही था
उम्र गुज़रेगी तुम्हें दिल से भुलाने में ,मगर
देख तुमको ज़ख़्म-ए-उल्फ़त फिर हरा होना ही था
तोड़ डाला हमने अपनी सादगी का आइना
ज़िन्दगी में झूठ से जब सामना होना ही था
कर दिया जब ग़म को ग़ज़लों में रक़म तुमने 'प्रिया '
दर्द को फिर महफ़िलों में बरमला होना ही था
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