क़ैद हों जिसमें परिंदे मैं वो पिंजरा न रहूँ
ओढ़ कर चेहरे पे कोई भी मुखौटा न रहूँ
चाहे सागर सा बड़ा और कुशादा न रहूँ
बस तबाही का किसी की भी मैं जरिया न रहूँ
भीड़ पीछे चले ऐसा रहे किरदार अपना
मेरे मालिक मैं किसी भीड़ का हिस्सा न रहूँ
ऐ ख़ुदा इश्क़ मेरा तू ही मुकम्मल करना
प्यार का कोई अधूरा सा मैं क़िस्सा न रहूँ
दोनों हाथों से लुटाऊँ मुझे इतना दे दे
होके मुहताज लिए हाथ में कासा न रहूँ
राज दिल पर करूँ मैं सारे ज़माने के ही
मैं किसी की भी रियासत का पियादा न रहूंँ
भूल जाऊँ न कहीं जग को तेरी चाहत में
तेरी ज़ुल्फ़ों में सनम इतना भी उलझा न रहूंँ
ज़ीनत-ए-अहले सुख़न मीना बने है ये दुआ
बनके मिसरा कभी मैं कोई तो तन्हा न रहूँ
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