मेरे इस दिल पे किसी हुस्न का क़ब्ज़ा न समझ
ग़म से बेज़ार हूँ मैं ज़ुल्फ़ों में उलझा न समझ
याद माज़ी की सताती है मुझे रातों को
सर के नीचे भी फ़क़त काँटे हैं तकिया न समझ
शौक़ जीने का नहीं बाक़ी कहीं भी मुझमें
मर चुकी हूँ कभी की तू मुझे ज़िंदा न समझ
मैं तो ख़ुश हूँ किसी बुनियाद का पत्थर होकर
मैं ज़मीं से जुड़ी हूँ मुझको सितारा न समझ
लाग के ढेर पे कुर्सी रखी उसने अपनी
अपना रहबर उसे या कोई मसीहा न समझ
बस निगाहों में उदासी है यहाँ लोगों की
आशिक़ों का है नगर तू इसे उजड़ा न समझ
अपने ही ख़ूँ से लिखा हमने तो इसको 'मीना'
शेर वज़्नी है बहुत इसको तू हल्का न समझ
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