ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम
हंसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम
मुंह देख देख रोते हैं किस बेकसी से हम
हम से न बोलो तुम इसे क्या कहते हैं भला
इंसाफ़ कीजे पूछते हैं आप ही से हम
बे-ज़ार जान से जो न होते तो मांगते
शाहिद शिकायतों पे तिरी मुद्दई से हम
उस कू में जा मरेंगे मदद ऐ हुजूम-ए-शौक़
आज और ज़ोर करते हैं बे-ताक़ती से हम
साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बंदगी कि छूट गए बंदगी से हम
इन ना-तावनियों पे भी थे ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर
क्यूंकर निकाले जाते न उस की गली से हम
मुंह देखने से पहले भी किस दिन वो साफ़ था
बे-वजह क्यूं ग़ुबार रखें आरसी से हम
है छेड़ इख़्तिलात भी ग़ैरों के सामने
हँसने के बदले रोएँ न क्यूं गुदगुदी से हम
वहशत है इश्क़-ए-पर्दा-नशीं में दम-ए-बुका
मुंह ढांकते हैं पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से हम
क्या दिल को ले गया कोई बेगाना-आश्ना
क्यूँ अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
ले नाम आरज़ू का तो दिल को निकाल लें
'मोमिन' न हों जो रब्त रखें बिदअती से हम
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