क्या हुआ कम है गर ज़िंदगी की समझ
सबको होती नहीं शायरी की समझ
काश सीने से लगकर के कहती मैं हूँ
मान लेता कि है ख़ामुशी की समझ
तुमने तो हाल भी मेरा पूछा नहीं
उसपे दावा तिरा दोस्ती की समझ
वक़्त अपना बुरा चल रहा इसलिए
सबसे अच्छी है मेरी घडी की समझ
हिज्र में वस्ल की बात मत कर समझ
राख में क़ैद है तिशनगी की समझ
मैं कमरबंद पे शेर कैसे कहूँ
खा रही इश्क को करधनी की समझ
इल्म तो बाद में काम आया मिरे
उसको खोकर हुई शायरी की समझ
एक लड़की जो सोलह में ब्याही गयी
पास उसके थी बस ओढ़नी की समझ
-नीरज नीर
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