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जुल्फ़ के पेंचों में कमसिन शोख़ियों में - Saarthi Baidyanath

जुल्फ़ के पेंचों में कमसिन शोख़ियों में
मुब्तला हूँ हुस्न की रानाइयों में

आसमां के चाँद की अब क्या ज़रूरत
चाँद रहता है नज़र की खिड़कियों में

धड़कनें बेहाल दोनों ही तरह हैं
या रहे फुर्क़त कि या नज़दीकियों में

सोचता हूँ अब उसे माँ से मिला दूँ
छुप के बैठी है जो कब से चिठ्ठियों में

वो अदाएं दिलवराना क़ातिलाना
अब कहाँ वो रंग यारों तितलियों में

- Saarthi Baidyanath

Zulf Shayari

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