जिस तरह अपने बदन को साथ लेके चलते हैं दोस्त
ऐसा लगता है कफ़न को साथ लेके चलते हैं दोस्त
रोज़ मेरे पास आकर रोते - रोते कहती है वो
आँख में कैसे चुभन को साथ लेके चलते हैं दोस्त
हम अकेले ही निकल आते थे तन्हा पहले घर से
रोज़ काँधों पर घुटन को साथ लेके चलते हैं दोस्त
मैंने आख़िर क्या बिगाड़ा था किसी का लोग मुझसे
किस लिए इतनी जलन को साथ लेके चलते हैं दोस्त
यह सफ़र इस बार मुझको दूर तक ले जाए शायद
तो चलो अपनी थकन को साथ लेके चलते हैं दोस्त
As you were reading Shayari by Sagar Sahab Badayuni
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