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अपने ख़्वाबों को इक दिन सजाते हुए  - Swapnil Tiwari

अपने ख़्वाबों को इक दिन सजाते हुए
गिर पड़े चाँद तारों को लाते हुए

एक पुल पर खड़ा शाम का आफ़्ताब
सब को तकता है बस आते जाते हुए

एक पत्थर मिरे सर पे आ कर लगा
कुछ फलों को शजर से गिराते हुए

ऐ ग़ज़ल तेरी महफ़िल में पाई जगह
इक ग़लीचा बिछाते उठाते हुए

सुब्ह इक गीत कानों में क्या पड़ गया
कट गया दिन वही गुनगुनाते हुए

ज़ात से अपनी 'आतिश' था ग़ाफ़िल बहुत
जल गया ख़ुद दिया इक जलाते हुए

- Swapnil Tiwari

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