Akhtar Ansari

Akhtar Ansari

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Akhtar Ansari shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhtar Ansari's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
कोई बिना-ए-कुहन जैसे लड़खड़ाती है

रचा हुआ है फ़ज़ाओं में एक अथाह हिरास
दिमाग़ शल है मगर रूह सनसनाती है

मुझे यक़ीन है आँधी कोई उठी है कहीं
कि लौ चराग़-ए-शबिस्ताँ की थरथराती है

उमीद यास के गहरे ख़मोश जंगल में
हवा-ए-शाम की मानिंद सरसराती है

सवाल है ग़म-ए-हस्ती के बीत जाने का
ये ज़िंदगी तो बहर-हाल बीत जाती है

ख़याल-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता ज़रा तवक़्क़ुफ़ कर
ज़मीन क़दमों के नीचे से निकली जाती है

मैं अपनी आग में जल कर कभी का ख़ाक हुआ
ये ज़िंदगी मुझे क्या ख़ाक में मिलाती है

निशाना-बाज़ फ़लक तेरे नावकों की ख़ैर
कि जिन की ज़द पे मिरे हौसलों की छाती है

लचक ही जाती है शाख़ अपने आशियाँ की भी
चमन में गाती हुई जब बहार आती है

फ़ुग़ान-ए-दर्द लबों पर न आइयो ज़िन्हार
मिरी सलीक़ा-शिआ'री पे बात आती है

इधर ये गिरिया-ए-अब्र और उधर वो ख़ंदा-ए-बर्क़
मिज़ाज-ए-दहर मिरे दोस्त तंज़ियाती है

रहीन-ए-रस्म-ओ-रिवायत हो जिस की बुत-शिकनी
वो बुत-शिकन भी हक़ीक़त में सोमनाती है

बपा है शोर-ए-क़यामत दिमाग़ में 'अख़्तर'
ज़बान-ए-ख़ामा मगर ज़मज़मे लुटाती है
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Akhtar Ansari
सुना के अपने ऐश-ए-ताम की रूदाद के टुकड़े
उड़ा दूँगा किसी दिन चर्ख़ की बेदाद के टुकड़े

असीरी को अता कर के असीरी का शरफ़ हम ने
उड़ा डाले ख़ुद अपनी फ़ितरत-ए-आज़ाद के टुकड़े

कहाँ का आदमी इंसान कैसा मा-हसल ये है
कहीं अश्ख़ास के पुर्ज़े कहीं अफ़राद के टुकड़े

तबाही के मज़ों से भी गए अब वाए-महरूमी
समेटूंगा कहाँ तक हसरत-ए-बर्बाद के टुकड़े

ये सीना तल्ख़ यादों का ख़ज़ीना ही सही लेकिन
बहुत चुभते हैं दिल में इक नुकीली याद के टुकड़े

तुम अच्छे ही सही मेरा बुरा होना भी है बर-हक़
कि हम सब हैं किसी मजमूअ-ए-अज़दाद के टुकड़े

हमें लख़्त-ए-जिगर खाने को हरगिज़ कम न था 'अख़्तर'
मगर क़िस्मत में लिक्खे थे जहानाबाद के टुकड़े
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Akhtar Ansari
तिरा आसमाँ नावकों का ख़ज़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना
हमारी ज़मीं ला'ल-ओ-गुल का दफ़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना

हुए नाम और नंग सब ग़र्क़-ए-सहबा मिरी मय-गुसारी की होगी सज़ा क्या
तिरे नाम का एक जुरआ' यही ना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना

तिरे वादा-ए-रिज़्क की है दुहाई अगर रिज़्क़ आज़ूक़ा-ए-रूह भी है
तो हम तो हैं महरूम-ए-नान-ए-शबीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना

न साँसों में जोश-ए-नुमू का तलातुम न मरने के ग़म में गुदाज़-ए-तअल्लुम
ये जीना भी है कोई जीने में जीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना

ज़मीं का कलेजा बहुत फुंक रहा है फ़लक फट पड़े क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ रवाँ हो
जबीन-ए-मशिय्यत से टपके पसीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना

मह-ओ-मेहर-ओ-अंजुम फ़लक के दुलारे तिरी मुम्लिकत के हसीं शाहज़ादे
हमारी ज़मीं काएनाती हसीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना

नहीं 'अख़्तर'-ए-ज़ार मायूस ख़ुद से कि ज़ुल्मत भी छटती है दर्जा-ब-दर्जा
उतरती है रहमत भी ज़ीना-ब-ज़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना
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Akhtar Ansari
लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
हम ने फ़िरदौस बनाए हैं जहन्नम क्या क्या

आँसुओं को भी पिया जुरआ-ए-सहबा की तरह
साग़र-ओ-जाम बने दीदा-ए-पुर-नम क्या क्या

हल्क़ा-ए-दाम-ए-वफ़ा उक़्दा-ए-ग़म मौज-ए-नशात
ये ज़माना भी दिखाता है चम-ओ-ख़म क्या क्या

लज़्ज़त-ए-हिज्र कभी इशरत-ए-दीदार कभी
आरज़ू ने भी तबीअ'त को दिए दम क्या क्या

किस किस अंदाज़ से खटके रग-ए-गुल के नश्तर
तपिश-अफ़रोज़ हुए शोला-ओ-शबनम क्या क्या

शाम-ए-वीराँ की उदासी शब-ए-तीरा का सुकूत
दिल-ए-महज़ूँ को मिले हमदम ओ महरम क्या क्या

हाए वो आलम-ए-बे-नाम कि जिस आलम में
बीत जाते हैं दिल-ए-ज़ार पे आलिम क्या क्या

इस्मत ओ रिफ़अत-ए-अंजुम से ख़याल आता है
ख़ाक में रौंदी गई हुर्मत-ए-आदम क्या क्या

दब गए मिन्नत-ए-मज़दूर से ऐवाँ कितने
झुक गए ग़ैरत-ए-मफ़्तूह से परचम क्या किया

थे मुसल्लह ग़म-ए-माशूक़ से गो हम 'अख़्तर'
फिर भी दिखलाए ग़म-ए-दहर ने दम-ख़म क्या क्या
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Akhtar Ansari
जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
हिफ़्ज़-ए-नामूस-ए-अलम भी नीश-ए-ग़म का पास भी

ख़ाक दर-बर ही सही मैं ख़ाक भी वो ख़ाक है
जिस में मेरे ज़ख़्म-ए-दिल की बू भी है और बास भी

कितने दौर-ए-चर्ख़ उन आँखों ने देखे कुछ न पूछ
मिट चुका है वक़्त की रफ़्तार का एहसास भी

हाए वो इक नश्तर-आगीं नेश्तर-अफ़रोज़ याद
जिस के आगे हेच अपनी बुर्रिश-ए-इंफ़ास भी

हम न थे कुछ ख़ुद ही उस सौदे पे राज़ी वर्ना यूँ
रास आने को ये दुनिया आ ही जाती रास भी

ख़ुद को ऐ दिल यास-ए-कामिल के हवाले यूँ न कर
झाँकती है ज़ेहन के ग़ुर्फ़े से कोई आस भी

कौन उस वादी से उछला ता-सर-ए-अर्श-ए-बरीं
गुम हैं जिस वादी में 'अख़्तर' ख़िज़्र भी इल्यास भी
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