कुछ बाहर कुछ भीतर भीतर रोते हैं
इश्क़ में पड़ने वाले अक्सर रोते हैं
मेघ गरजते हैं और बारिश होती है
धरती पर जब मस्त-कलंदर रोते हैं
तेरे हिज्र में हँसते भी हैं गाते भी
कैसी वहशत है जो मिलकर रोते हैं
हमको तो कुछ मछुआरे बतलाते हैं
झीलें, दरिया और समंदर रोते हैं
कुछ लोगों पर होती है रब की नेमत
कि़स्मत वाले हैं जो खुलकर रोते हैं
रोना फ़न है जबसे ये मालूम पड़ा
रोने वाले हमसे बेहतर रोते हैं
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