निकला है जो घर से वो कभी घर नहीं आता
इक ख़्वाब ही तो है जो मुकर्रर नहीं आता
जो डर रहा ज़ुल्मत से हो तो ये कहो उससे
लौ दिखने से वो रात का मंज़र नहीं आता
जब गिर कोई जाए जो निगाहों में ही अपनी
वो शख़्स किसी के भी बराबर नहीं आता
आ जाते हैं हिस्से में जो जब फर्ज़ अदा करने
फिर हिस्से में उनके कभी भी घर नहीं आता
जो वो मिले 'पारस' कभी तो पूछना उससे
क्यों दरिया की ही ओर समंदर नहीं आता
Read Full